
करीब दो दशक तक राजनीतिक अलगाव और शब्दों की तलवार चलाने के बाद, राज और उद्धव ठाकरे एक मंच पर आए। बाल ठाकरे की विरासत, जिसे दो हिस्सों में बंटते हुए महाराष्ट्र ने देखा, अब फिर से जोड़ने की कोशिश हो रही है। लेकिन क्या यह सचमुच पारिवारिक पुनर्मिलन है या राजनीति का नया स्टंट?
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राज ठाकरे बोले – “जो बालासाहेब नहीं कर पाए, वो देवेंद्र फडणवीस ने कर दिखाया।”
वाह! क्या डायलॉग मारा है… मतलब फडणवीस भाई ने ऐसा कुछ किया कि पुराने दुश्मन अब जिगरी यार बन गए।
राजनीति में भावनाओं का रिटर्न गिफ्ट?
राज ठाकरे की एमएनएस पिछले चुनाव में ज़ीरो पर आउट हो गई। बेटे अमित ठाकरे की राजनीति भी ज्यादा “फ्लॉप शो” रही। उधर उद्धव ठाकरे भी पार्टी नाम और चुनाव चिन्ह गंवा चुके हैं। ऐसे में ये “दो लूज़र एक साथ” का जुगलबंदी शो है या हार के बाद एक आखिरी दांव?
क्या दोनों मिलकर मराठी अस्मिता की आग फिर से जला सकते हैं?
जब एकनाथ शिंदे ने “जय गुजरात” का नारा लगाया, तो जैसे मराठी मन में झनझनाहट सी फैल गई। अब उसी मराठी मन को राज और उद्धव फिर से “पॉलिटिकल डीजे” पर नचाना चाह रहे हैं। सड़क पर राज माहिर हैं और उद्धव उनके बैकअप वोकल बन सकते हैं।
कुल मिलाकर – सरकार विधानसभा में फडणवीस की, लेकिन “सड़क की सत्ता” ठाकरे बंधुओं की?
राज ठाकरे को जब बिहारियों से नफरत दिखानी होती है, तो वह “मराठी मुसलमान” से भी ज्यादा नफरत नहीं दिखाते। और उद्धव ठाकरे भले ही सेक्युलर चेहरा बन गए हों, लेकिन सावरकर प्रेम उनका डीएनए है।
अमित मित्तल बोले, जय श्रीराम की जगह जय माँ काली लगाने वाली बीजेपी बंगाल में खुद को रीब्रांड कर चुकी है। महाराष्ट्र में भी “जय महाराष्ट्र” अब “जय श्रीराम” के साथ एक पैकेज डील हो सकता है।
कांग्रेस को खतरा, बीजेपी को मौका?
नीरजा चौधरी की मानें तो सबसे बड़ी टेंशन कांग्रेस को होनी चाहिए। महाराष्ट्र में “विपक्ष का स्पेस” खाली है, और राज-उद्धव की जोड़ी वही भरने की कोशिश में है।
लेकिन ये भी सोचिए – मराठी अस्मिता पर राजनीति वही लोग कर रहे हैं, जिनके बच्चे अंग्रेजी मीडियम में पढ़ते हैं!
गांव की औरतें अंग्रेजी स्कूल चाहती हैं, और नेता हिन्दी बनाम मराठी में भाषाई यज्ञ कर रहे हैं।
अस्मिता के नाम पर आख़िरी चाल या सत्ता की तैयारी?
बीजेपी ने उप-राष्ट्रवाद को काफी हद तक काबू में कर लिया है – लेकिन बंगाल और अब शायद महाराष्ट्र जैसे राज्य फिर चुनौती बनने की ओर हैं। ठाकरे भाइयों की ये जोड़ी कितनी टिकाऊ है, ये MCD चुनाव और 2029 की राह पर तय होगा।
अभी के लिए इतना समझ लीजिए – राजनीति में ना कोई स्थायी दुश्मन होता है, ना स्थायी दोस्त। सिर्फ स्थायी होता है – कैमरा, माइक और भाषणबाज़ी!
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